गुरुवार, दिसंबर 31, 2020
नया साल 2021 | नयी उम्मीदें | कुछ नई-पुरानी ग़ज़लें | डॉ. वर्षा सिंह
सोमवार, दिसंबर 28, 2020
मेरी चाहत | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है
Dr. Varsha Singh |
मेरी चाहत
-डॉ. वर्षा सिंह
धूप के दर से होकर चली जो हवा
क्या बताएगी वो चांदनी का पता
उसका ख़त आज की डाक में भी न था
आज भी सांझ खाली गई इक दुआ
अंजुरी में झरे फूल की पंखुरी
ज़िन्दगी तुझको कैसे संवारे बता !
झील परछाइयों से लबालब भरी
प्यार पलकों की कोरों में आकर चुआ
ये भी सपनों को जीने का अंदाज़ है
तन में सेमल खिले, मन बसंती हुआ
मेरी चाहत किशन की बनी बांसुरी
मैंने माथे पे कुमकुम लिया है सजा
वो ही सावन है "वर्षा" वही है घटा
फिर भी मौसम ये लगने लगा है नया
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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)
रविवार, दिसंबर 27, 2020
अजनबी लग रही है | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है
Dr. Varsha Singh |
- डॉ. वर्षा सिंह
सिसकती हुई-सी हंसी लग रही है
है मेरी, मुझे अजनबी लग रही है
शहर अपनी रौ में बहा जा रहा है
अंधेरों में गुम रोशनी लग रही है
हदें छू रही हैं किसी की उड़ानें
किसी से ज़मीं भी कटी लग रही है
सफ़ेदी पुती हर इबारत के पीछे
उदासी की स्याही छुपी लग रही है
बेशक कोई ख़ास ही बात होगी
तभी बदगुमां ज़िन्दगी लग रही है
कमी ढूंढने का शग़ल भी अजब है
उन्हें हादसों में कमी लग रही है
गुमे हैं वहां बाढ़ में पुल नदी के
यहां पर तो "वर्षा" थमी लग रही है
(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)
शनिवार, दिसंबर 26, 2020
हर बूंद पढ़ रही है | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है
Dr. Varsha Singh |
हर बूंद पढ़ रही है ....
- डॉ. वर्षा सिंह
मेरे लिए बना वो रेशम की ओढ़नी
उसके लिए न पूछो मैं क्या नहीं बनी
चाहत के इक भंवर में उलझी हुई नदी
मुट्ठी में क़ैद जैसे हीरे की इक कनी
सपनों के पर जलाकर ख़ामोश हो गई
रातों की आंच लेकर सुलगी जो चांदनी
ताज़्जुब तो ये है दुनिया इक फूल के लिए
कोहरे-सी सर्द, ज़हरी, काली घनी-घनी
जुड़ने के, टूटने के आदिम-से सिलसिले
चिर कर हुई है अक्सर दो फांक रोशनी
मीठी छुवन की "वर्षा" भीगी इबारतें
हर बूंद पढ़ रही है सदियों से सनसनी
(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)
शुक्रवार, दिसंबर 25, 2020
कच्ची नींदें, ख़्वाब अधूरे | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है
Dr. Varsha Singh |
कच्ची नींदें, ख़्वाब अधूरे
- डॉ. वर्षा सिंह
तेरा-मेरा एक किस्सा है
दुख से घना-घना रिश्ता है
तेरी आंख में आंसू आए
मेरे दिल में कुछ चुभता है
कच्ची नींदें, ख़्वाब अधूरे
पत्ता-पत्ता जाग रहा है
ख़ामोशी कब चुप रहती है
हमने अक्सर उसे सुना है
सुख के मौसम आते-जाते
दुख का स्थाई डेरा है
'पियू-पियू' रटता रहता है
तन का पिंजरा, मन तोता है
"वर्षा" के आंचल में बूंदें
वक़्त का दरिया ख़ुश्क पड़ा है
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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)
गुरुवार, दिसंबर 24, 2020
प्यार महकता रहता है | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है
Dr. Varsha Singh |
प्यार महकता रहता है
- डॉ. वर्षा सिंह
देखो तो क्या है कोलाहल के भीतर
बिछी हुई है ख़ामोशी की एक चादर
बच्चे खेल-खिलौनों में उलझे रहते
शजर पुराने जानें, गुज़री क्या किन पर
दो-दो चार जोड़कर चलती दुनिया में
दो-दो पांच भी होते देखे हैं अक्सर
तितली-फूल, हवा-पानी के रिश्ते में
प्यार महकता रहता है ख़ुशबू बनकर
दौर बदलता, सदी बदलती है लेकिन
ज्यों के त्यों क़ायम रहते ढाई आखर
सच कहने का सिर्फ़ उसी में साहस है
आग जलाए रहता जो अपने भीतर
सतरों-सतरों गढ़ी किताबें मौसम ने
पढ़ने वाले ठहरे "वर्षा"- सावन पर
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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)
बुधवार, दिसंबर 23, 2020
कुछ जतन कीजिए | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है
Dr. Varsha Singh |
कुछ जतन कीजिए
- डॉ. वर्षा सिंह
पीपलों, बरगदों, आंवलों के लिए
हम दुआएं करें जंगलों के लिए
आग यूं ही धधकती रही हर तरफ
ठौर होगा कहां बुलबुलों के लिए
द्वार पर पांव रखने गई लड़कियां
चुप रहें, शर्त थी पायलों के लिए
काग़ज़ी आंकड़ों से भरी है सदी
जोड़-बाकी महज हलचलों के लिए
आज का दौर कल से ज़ुदा किस तरह
आज भी रोशनी कुछ पलों के लिए
आंख में जंग खाए सपन चुप रहे
आंसुओं की तपन काजलों के लिए
घुल रहा है हवा में ज़हर ही ज़हर
कुछ जतन कीजिए कोंपलों के लिए
साथ "वर्षा" निभाती रहेगी सदा
आस्था शेष है बादलों के लिए
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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)
मंगलवार, दिसंबर 22, 2020
ये दुआ कीजिए | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है
Dr. Varsha Singh |
ये दुआ कीजिए
- डॉ. वर्षा सिंह
अब हमें चाहिए क़िस्मतें ये नहीं
मौसमों की बुरी रंगतें ये नहीं
कार्बन से भरी है हवा की शिरा
दे सकेगी कभी सेहतें ये नहीं
रह सके आस्था जिन दरों पर, वहां
हों नक़ाबों मढ़ी सूरतें ये नहीं
झेलना ही नियति बन गई है जिन्हें
ख़्वाब में भी गढ़ी मूरतें ये नहीं
धर्म का संकुचन जिनके हाथों हुआ
श्लोक भी ये नहीं, आयतें ये नहीं
ये दुआ कीजिए पीढ़ियां हो सुखी
छू सके भी उन्हें दहशतें ये नहीं
दौर संत्रास का ही रहेगा सदा
गर सुधारी गई हालतें ये नहीं
लोग जिनके लिए मर मिटे हैं यहां
साथ "वर्षा" गईं दौलतें ये नहीं
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सोमवार, दिसंबर 21, 2020
शायरी मेरी सहेली की तरह | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है
Dr. Varsha Singh |
शायरी मेरी सहेली की तरह
- डॉ. वर्षा सिंह
शायरी मेरी सहेली की तरह
मेंहदी वाली हथेली की तरह
हर्फ़ की परतों में खुलती जा रही
ज़िन्दगी जो थी पहेली की तरह
मेरे सिरहाने में तकिया ख़्वाब का
नींद आती है नवेली की तरह
आग की सतरें पिघल कर सांस में
फिर महकती हैं चमेली की तरह
ये मेरा दीवान "वर्षा"- धूप का
रोशनी की इक हवेली की तरह
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(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)
रविवार, दिसंबर 20, 2020
कल शाम कहा उसने | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - सच तो ये है
Dr. Varsha Singh |
कल शाम कहा उसने
- डॉ. वर्षा सिंह
कल शाम कहा उसने, फूलों की ग़ज़ल कह दो
'वर्षा' हो ज़रा बरसो, बूंदों की ग़ज़ल कह दो
अब और न गूंथो यूं , चोटी में उदासी को
ख़ुशियों की लहर देकर, जूड़ों की ग़ज़ल कह दो
इंसान को मत बांधो, मज़हब के रदीफ़ों में
अपनी तो बहुत कह ली, दूजों की ग़ज़ल कह दो
फुटपाथ पे घुट-घुट के, दम तोड़ रहा बचपन
आंचल की हवा देकर, झूलों की ग़ज़ल कह दो
हालात की हद तय है, हर दौर बदलता है
कानों में अमीरी के, भूखों की ग़ज़ल कह दो
"वर्षा" का समंदर से रिश्ता तो पुराना है
चाहत के, इबादत के, रूपों की ग़ज़ल कह दो
(मेरे ग़ज़ल संग्रह "सच तो ये है" से)