Dr. Varsha Singh |
मेरी इस ग़ज़ल को web magazine युवा प्रवर्तक के अंक दिनांक 22 अगस्त 2019 में स्थान मिला है।
युवा प्रवर्तक के प्रति हार्दिक आभार 🙏
मित्रों, यदि आप चाहें तो पत्रिका में इसे इस Link पर भी पढ़ सकते हैं ...
http://yuvapravartak.com/?p=17783
ग़ज़ल
मूल्य जीवन के बदलते जा रहे ....
- डॉ. वर्षा सिंह
वर्जनाओं से बिखरते जा रहे
दर्पणी सपने दरकते जा रहे
जो अप्रस्तुत है उसी की चाह में
रिक्त सारे पंख झड़ते जा रहे
प्यार का मधुबन न उग पाया यहां
कसमसाते छंद ढलते जा रहे
कष्ट की काई जमीं हर शब्द पर
अर्थ के प्रतिबिंब मिटते जा रहे
चुक रहे संदर्भ रिश्तों के सभी
हम स्वयं से आज कटते जा रहे
लीक के अभ्यस्त पांवों के तले
मुक्ति के अनुबंध घिसते जा रहे
बन न पाया मन कभी निर्वात जल
हम हिलोरों में हुमगते जा रहे
और कब तक अंधकूपी रात दिन
पूछते पल-छिन गुज़रते जा रहे
जागरण “वर्षा’’ ज़रूरी हो गया
मूल्य जीवन के बदलते जा रहे
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#ग़ज़लवर्षा