शुक्रवार, जुलाई 31, 2020

बरसात | शायरी | कुछ ग़ज़लें | कुछ शेर | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
वर्षा ऋतु यानी बरसात का मौसम जनमानस पर अपना एक अलग प्रभाव छोड़ता है। रिमझिम गिरता पानी, गरजते-बरसते बादल, रह-रह कर चमक उठती बिजली, भीगी हवा, भीगे अहसास.... उर्दू- हिन्दी शायरी में बरसात के प्रति अलग-अलग अभिव्यक्ति के भाव देखने को मिलते हैं। किसी शायर को बरसात ख़ुशियों की वादी बन कर आनंदित कर जाती तो किसी के लिए ग़मों का पहाड़ बन कर रोने का सबब बन जाती है। प्रिय ब्लॉग पाठकों, आज मैं यहां चर्चा करना चाहूंगी बरसात की कुछ ऐसे ही शायरी की... तो प्रस्तुत हैं कुछ चुनिंदा ग़ज़लें, कुछ चुनिंदा शेर....
   शायर निदा फ़ाज़ली का यह मशहूर शेर हर साहित्य प्रेमी को याद होगा -
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है।

शायर सैफ़ुद्दीन सैफ़ की इस ग़ज़ल में बरसात का यह रंग देखें -
हम को तो गर्दिश-ए-हालात पे रोना आया।
रोने वाले तुझे किस बात पे रोना आया।

कितने बेताब थे रिम-झिम में पिएँगे लेकिन
आई बरसात तो बरसात पे रोना आया।

Ghazal Yatra|Barsaat|Shayari

शायर जानां मलिक का यह शेर  भी कुछ कम नहीं -
खुल के रो लूँ तो ये दीवार हटे दूरी की
अब्र बरसे तो ये बरसात से रस्ता निकले।

ख़ातिर ग़ज़नवी के इस के में फ़ासलों का दर्द बरसात के जाने से बढ़ता दिखाई देता है -
अब के भी वो दूर रहे
अब के भी बरसात चली।

'ख़ातिर' ये है बाज़ी-ए-दिल
इस में जीत से मात भली।

नज़ीर अकबराबादी बरसात में भी बहारों को देखते हैं, वे कहते हैं -
हैं इस हवा में क्या-क्या बरसात की बहारें।
सब्जों की लहलहाहट ,बाग़ात की बहारें।

Ghazal Yatra|Barsaat|Shayari

जुदाई का दर्द और उस पर बरसात का मौसम... फ़रहान हनीफ़ वारसी की ग़ज़ल के चंद शेर यहां प्रस्तुत हैं -
इस मौसम तक आई यार
बीती रुत की ग़म सौग़ात।

दिल से तो निकली लेकिन
होंठों पर आ ठहरी बात।

तन्हा सी मेरे कमरे में
भीग रही है ख़ुद बरसात।

छोटी बहर के शे'रों में
कहना मुश्किल पूरी बात।

सुदर्शन फ़ाकिर के ये शेर बेहद ख़ूबसूरत हैं -
कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया
और कुछ तल्ख़ी-ए-हालात ने दिल तोड़ दिया

हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब
आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।

दिल तो रोता रहे ओर आँख से आँसू न बहे
इश्क़ की ऐसी रिवायात ने दिल तोड़ दिया।

Ghazal Yatra|Barsaat|Shayari


फ़िराक गोरखपुरी कहते हैं -
बस इक शराब-ए-कुहन के करिश्मे हैं साक़ी
नए ज़माने, नई मस्तियाँ, नई बरसात

कवि नीरज जितने अच्छे गीतकार थे उतने ही बेहतरीन ग़ज़लकार भी। जब वे मंचों पर जाते तो उनसे इस शेर को सुनाने की फ़रमाइश ज़रूर की जाती थी -
अबके बारिश में शरारत ये मेरे साथ हुई,
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई।

ज़िंदगी भर तो हुई गुफ़्तुगू ग़ैरों से मगर
आज तक हम से हमारी न मुलाक़ात हुई

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ का यह शेर भी देखें -
आज बरसात हो रही जमकर, जल रहा दिल का यह नगर फिर भी,
है सरे राह कोहे दुश्वारी, गुज़र रही है पर उमर फिर भी।

Ghazal Yatra|Barsaat|Shayari

इश्क़ में डूबी भावनाओं से मिली ख़ुशी और ग़म में बरसात ने साथ दिया तो ज़िन्दगी की खुरदुरी हक़ीक़तों में भी बरसात अभिव्यक्ति का माध्यम बनी। देखें
ओम प्रकाश चतुर्वेदी 'पराग' का यह शेर -
खेत सूखे हैं, चमन खुश्क है, प्यासे सेहरा
और तालाब में बरसात , खुदा खैर करे।

जिसने कंधे पे मेरे चढ़ के छुआ है सूरज
आज दिखला रहा औकात, खुदा खैर करे।

मुझसे जितना भी बना मैंने संवारी दुनिया
अब तो बेकाबू है हालात, खुदा खैर करे।


दोहासम्राट रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ ने बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़लें भी लिखी हैं। उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल का मतला देखें जिसमें बरसात और पुरवा का ज़िक्र है -
जब आती बरसात सुहानी ।
पुरवा चलती है मस्तानी ।।

Ghazal Yatra|Barsaat|Shayari

शायर ज़िगर मुरादाबादी ने बरसात का अपनी ग़ज़ल में बेहतरीन इस्तेमाल किया है -
आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम।

वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम।

डॉ.(सुश्री) शरद सिंह का गद्य पर जितना अधिकार है, उतना ही पद्य पर भी। जहां एक ओर उनके उपन्यासों ने पाठकों के बीच ख्याति अर्जित की है, वहीं दूसरी ओर उनके नवगीत और उनकी ग़ज़लें काव्यप्रेमियों को नयी ऊर्जा से भर देती हैं। बरसात पर उनकी एक ग़ज़ल के कुछ शेर प्रस्तुत हैं -

हर साल इक कहानी, बरसात के मौसम में।
छप्पर से  रिसे  पानी, बरसात के मौसम में।

नाले भी  उफ़नते हैं  बादल के  इशारों पे
दुश्मन लगें वो जानी, बरसात के मौसम में।

आती हैं याद बन के, अक्सर "शरद" हमें वो
बातें सभी पुरानी, बरसात के मौसम में।

Ghazal Yatra|Barsaat|Shayari

राहत इंदौरी का अपना अलग ही अंदाज़ है। वे कहते हैं -
हर बूँद तीर बन के उतरती है रूह में
तन्हा मेरी तरह कोई बरसात में रहे।

हर रंग हर मिज़ाज में पाया है आपको
मौसम तमाम आपकी ख़िदमात में रहे।

शाखों से टूट जाएं वो पत्ते नहीं हैं हम
आँधी से कोई कह दे के औक़ात में रहे।


अरुण आदित्य की ग़ज़ल में बरसात का ज़िक्र कुछ यूं हुआ है -
ये तेरा अँधेरा है, वो मेरा अँधेरा
बांटो न यूं ज़ख्मों को जात-पात की तरह।

इस शहर के पत्थर भी होते हैं तर बतर
बरसो तो जरा टूट के बरसात की तरह।

सूरज का रंग लाल और लाल दिखेगा
लिखने लगोगे रात को जब रात की तरह।

विनय कुमार ने बरसात के जरिये हक़ीक़त बयान की है -
बरसात है, हर शख़्स का घर डूब रहा है।
सपने बरस रहे हैं शहर डूब रहा है।

किस सिम्त से निकला था किताबों से पूछिए
पूरब में आफ़ताब मगर डूब रहा है।

सब धूप में डूबे हुए, दिल ओस में मछली
दिल डूब रहा है कि दहर डूब रहा है।

निकलेगा साफ़-सुथरा उधर लाल किले पर
सड़ती हुई जमुना में इधर डूब रहा है।

Ghazal Yatra|Barsaat|Shayari

          ....और अंत में मेरी यानी इस ब्लॉग की लेखिका डॉ. वर्षा सिंह की दो ग़ज़लें जिनके मक़्ते में बरसात की आमद कुछ इस तरह हुई है -

एक -

पत्ता-पत्ता दिन मुरझाया, फूल-फूल मुरझायी रात।
चर्चाओं के दौर चले पर, रही अधूरी उसकी बात।

"मैं" और "हम" के बीच फ़ासला, शर्तों से कब मिट पाया,
प्यार कहां तब शेष रहा जब, जीत-हार की बिछी बिसात।

ऊंचे पद पा लिए सिफ़ारिश, रिश्तेदारी के चलते,
टिकी रही निचली सतहों पर किन्तु विचारों की औक़ात।

कड़वे सच के कौर घुटक कर जैसे-तैसे आए हैं,
शहरों से खाली लौटों को, क्या दे पाएगा देहात।

अक्सर कोई भीगा बाहर, कोई भीतर से भीगा,
"वर्षा" में सब भीगे लेकिन, एक न हो पाई बरसात।

Ghazal Yatra|Barsaat|Shayari


दो -

आंख खुली जब आधी रात।
सोच-फ़िक्र की बिछी बिसात।

अक्सर रह जाती है आधी
तेरे-मेरे प्यार की बात।

आस बंधी रहती है हरदम
कभी तो बदलेंगे हालात।

व्यर्थ हुई उम्मीद वस्ल की
मिली जुदाई की सौगात।

"वर्षा" की रिमझिम के बदले
अश्कों की होती बरसात।

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रविवार, जुलाई 26, 2020

चांद | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय मित्रों, मेरे ग़ज़ल संग्रह "हम जहां पर हैं" में संग्रहीत एक और ग़ज़ल प्रस्तुत है....
चांद
     - डॉ. वर्षा सिंह

यादों से भी गहरा चांद
पिघले कतरा-कतरा चांद

परदेसी सा आता जाता
नीम गांछ पर ठहरा चांद

प्रियतम का ख़त पूरनमासी
अक्षर -अक्षर उतरा चांद

धार बेतवा की दर्पण-सी
देखी अपना चेहरा चांद

झील नहाए पर्वत सोए
रोशन ज़र्रा- ज़र्रा चांद

हरियाला बन्ना विंध्याचल
माथे सोहे चेहरा चांद

रात के काले लंबे गेसू
किसने बांधा गजरा चांद

फ़ुरकत के बेबस लम्हों में
इश्क़ परिन्दा, पिंजरा चांद

तन्हाई का आलम 'वर्षा'
ग़ज़ल चांदनी मिसरा चांद
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मंगलवार, जुलाई 21, 2020

इक चांद है इस खत में | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय ब्लॉग पाठकों मेरे ग़ज़ल संग्रह "हम जहां पर हैं" में संग्रहीत एक ग़ज़ल प्रस्तुत है....
ग़ज़ल
इक चांद है इस खत में
         - डॉ. वर्षा सिंह

भूली हुई गजलों को जब सांझ कोई गाए।
मन दौड़ के बीते दिन मुट्ठी में उठा लाए।

खिड़की में हरे शीशे लगवा भी लिए तो क्या !
जंगल तो नहीं आकर बाहों में समा पाए।

संकेत के झुरमुट में तुम झांक के देखो तो,
संवाद कोई खिलता शायद तुम्हें दिख जाए।

लावे की नदी बनकर चिंताएं उफनती हैं,
जलते हैं गुलाबी पल दिखते ही नहीं साए।

इक चांद है इस ख़त में, तुम पढ़ के बताना ये,
तुमको भी उजालों के, सपने तो नहीं आए।

हर सांस में आस बंधी, है सुख के संदेशे की,
कोई तो कभी आए और हाल सुना जाए।

"वर्षा" का हृदय निश्छल, ये हाल है चाहत का,
सागर भी भला लागे, पर्वत भी उसे भाए।
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रविवार, जुलाई 19, 2020

और तुम ख़ामोश हो | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

प्रिय ब्लॉग पाठकों, आज एक और ग़ज़ल मेरे संग्रह "हम जहां पर हैं" से....
   ... और तुम ख़ामोश हो !
                        - डॉ. वर्षा सिंह             
हो रही आहत मनुजता, और तुम ख़ामोश हो।
पैंतरों से  लैस  प्रभुता, और तुम  ख़ामोश हो।

वृद्ध, रोगी हैं, अपाहिज कोशिशों के काफ़िले,
दर्द का सैलाब उठता, और तुम खामोश हो ।

खौलते जल में गिरी हो जिस तरह मछली कोई,
ख़्वाब आंखों में तड़पता, और तुम ख़ामोश हो।

बुद्धिजीवी हो रहे असमर्थ, कैसे क्या हुआ !
प्रश्न का उत्तर न मिलता, और तुम ख़ामोश हो।

वायदे सारे नपुंसक, राहतें जन्मीं नहीं,
पैरवी खुद साक्ष्य करता, और तुम ख़ामोश हो।

लाल, पीली, बैंगनी  झंडी  उठाए  हाथ में,
दिनदहाड़े झूठ छलता, और तुम ख़ामोश हो।

हो रही 'वर्षा', घिरी है  यातनाओं की घटा,
जल नदी का है उफनता, और तुम ख़ामोश हो।
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#ग़ज़लवर्षा #dr_varsha_singh
#हम_जहां_पर_हैं #ग़ज़ल #और_तुम_ख़ामोश_हो #बुद्धिजीवी #दर्द #ख़्वाब

शुक्रवार, जुलाई 17, 2020

प्यार की भाषा | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
     
         प्रिय ब्लॉग पाठकों, मेरी यह ग़ज़ल मेरे संग्रह "हम जहां पर हैं" में संग्रहीत है। यह पुरानी ग़ज़ल मुझे लगता है कि आज के हालात में भी आपको ताज़ा-सी महसूस होगी। निवेदन है कि कृपया पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। धन्यवाद !

ग़ज़ल

प्यार की भाषा
        -डॉ. वर्षा सिंह

वह समझ पाते नहीं घर - बार की भाषा।
सीख जो पाते नहीं हैं प्यार की भाषा।

शर्तिया मंझधार में वह नाव डूबेगी,
हो गई विपरीत गर पतवार की भाषा

जी-हज़ूरी, वाहवाही की सदा चाहत,
इसलिए चुभती उन्हें अख़बार की भाषा

और कुछ इतिहास द्वापर का लिखा जाता,
गर भुला देते सभी प्रतिकार की भाषा।

दोस्ती जिसने क़लम के साथ कर ली हो,
रास कब आई उसे तलवार की भाषा ।

गांव में दाख़िल हुई जिस दिन हवा शहरी,
लोग भूले झांझरी झंकार की भाषा ।

बाद मरने के वही अर्थी, वही मरघट ,
काम तब आती नहीं अधिकार की भाषा।

ज़िंदगी की दौड़ में वह रह गया पीछे,
पढ़ न पाया जो यहां रफ्तार की भाषा।

नफ़रतों का तब नहीं होता निशां 'वर्षा',
काश, होती एक गर संसार की भाषा।
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#हम_जहां_पर_हैं #ग़ज़ल #संसार #अख़बार #प्यार #भाषा

मंगलवार, जुलाई 14, 2020

चुनावी समर | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
      उपचुनावों की हलचल ज़ारी है। प्रस्तुत है मेरी एक ग़ज़ल....

चुनावी समर
      - डॉ. वर्षा सिंह

फिर चुनावी समर की तैयारियां होने लगीं
फिर हवाएं बोझ नारों का यहां ढोने लगीं

फिर नई संकल्प गाथा, फिर नई विरुदावली
फिर नए जल से दिशाएं मुख मलिन धोने लगीं

चिन्ह ही पर्याय हैं अब, व्यक्ति के व्यक्तित्व के
रूप की परछाइयां पहचान फिर खोने लगीं

इश्तिहारों की धरा पर उग रहे चेहरे नए
स्वप्न जीवी कल्पनाएं चाहतें बोने लगीं

मात-शह की फिर बिछी फड़, फिर छिड़ा संग्राम है
हर जगह उद्बोधनों की खेतियां होने लगीं

खोखले वादे पहनकर झूमती अट्टालिका
सोचकर परिणाम लेकिन झुग्गियां रोने लगीं

वायदों की नींव "वर्षा" छद्म की कारीगरी
इस महल में दफ़्न हो सच्चाईयां सोने लगी

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गुरुवार, जुलाई 09, 2020

ग़ज़ल जब बात करती है | ग़ज़ल संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह | समीक्षा | शिवना साहित्यिकी

Dr. Varsha Singh
प्रिय ब्लॉग पाठकों, "शिवना साहित्यिकी" पत्रिका के अप्रैल-जून 2020 अंक में प्रकाशित मेरे ग़ज़ल संग्रह "ग़ज़ल जब बात करती है" की समीक्षा प्रस्तुत है।

 इस पूर्ण साहित्यिक पत्रिका में मेरी पुस्तक पर समीक्षा प्रकाशित होना मेरे लिए अत्यंत प्रसन्नता का विषय है...
हार्दिक आभार संपादक, शिवना साहित्यिकी 🙏


ग़ज़ल जब बात करती है | ग़ज़ल संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह | समीक्षा | आचरण

ग़ज़ल जब बात करती है (ग़ज़ल संग्रह) - डॉ. वर्षा सिंह


प्रिय ब्लॉग पाठकों, मेरे ग़ज़ल संग्रह "ग़ज़ल जब बात करती है"  की समीक्षा "आचरण" समाचारपत्र  दिनांक 25.06.2020 में प्रकाशित हुई है।
हार्दिक आभार आचरण🙏
हार्दिक आभार डॉ. महेश तिवारी जी 🙏

ग़ज़ल जब बात करती है, समीक्षा, आचरण, सागर,

पुस्तक समीक्षा

‘‘ग़ज़ल जब बात करती है’’: नए मुहावरे गढ़ता ग़ज़ल संग्रह

समीक्षक - डॉ. महेश तिवारी

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पुस्तक: ग़ज़ल जब बात करती है (ग़ज़ल संग्रह)
कवयत्री: डॉ. वर्षा सिंह
प्रकाशन वर्ष: 2020, प्रथम संस्करण
मूल्य :   200/-
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, बस स्टैंड, सीहोर (म.प्र.)
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‘‘ग़ज़ल जब बात करती है’’ जैसा कि पुस्तक का शीर्षक है, वह अपने आप में बात करने की सार्थकता स्वयं सिद्ध करता है। शब्दों के माध्यम से भावों की प्रबलता सीधे आत्मा में प्रवेश कर जाती है। ग़ज़ल में रूहानियत भी है और रूमानियत भी है। ये ग़ज़लें सामाजिक जीवन मूल्यों को स्पर्श करती है। ये न केवल झकझोर देती हैं, जीवन को स्पंदित भी करती हैं। ग़ज़ल को प्राणवान बनाने की दिशा में डॉ वर्षा सिंह को न केवल ख्याति देता है, प्रतिष्ठापित भी करता है। वर्तमान युग में महान ग़ज़लकार या कहें कि हिन्दी ग़ज़ल की अस्मिता को स्थापित करने वाले दुष्यंत कुमार की विरासत और परंपरा को गतिशील बनाने में अपनी कलम से डॉ वर्षा जो इबारत लिख रही हैं, वह साहित्याकाश में, ग़ज़ल की दुनिया में एक नया मुकाम हासिल कर चुकी हैं।        
ग़ज़लकार परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करता है। ग़ज़ल में सूफियाना अंदाज और गायकी दुनिया में जो स्वर मिलता है उससे ग़ज़ल और ज्यादा जीवंत हो उठती है। डाॅ वर्षा सिंह की ग़ज़लों में तंज भी है जो चुभते हैं और आंदोलित भी करते हैं। कविता हो या शायरी, किसी ना किसी पीड़ा से जन्म लेती है। फिर चाहे वह प्रेम, प्रकृति या समाज की पीड़ा हो, यह पीड़ा रचनाकार को गहरी संवेदनशीलता प्रदत्त करती है। उनके ये शेर देखें-
चला रहे हैं आरियां, वो जंगलों की  पीठ पर
कटे हैं पेड़ जिस जगह,वहीं थी ज़िन्दगी कभी।
उदास है  किसान, कर्ज़ के तले,  दबा हुआ
दुखों की छांव है वहां, रही जहां ख़ुशी कभी।
डरा हुआ  है  बालपन, डरी  हुई  जवानियां
निडर  समाज  फिर बने, रहे न बेबसी कभी।

डाॅ. वर्षा सिंह पर्यावरण के प्रति चिंता की लकीरें खींचती हैं जिसमें जंगल की बात है, सपनों की बात है, किताबों को जीवन से जोड़ने की बात है।
दुख-सुख की हैं सखी किताबें।
लगती कितनी सगी किताबें।
जीवन की दुर्गम राहों में ,
फूलों वाली गली किताबें।

उनकी यह ग़ज़ल यह साबित कर देती है कि दुख हो या सुख, किताबें हर स्थिति में बौद्धिक ऊर्जा प्रदान करती हैं तथा मनुष्य को तनाव से मुक्ति भी दिलाती हैं। डाॅ. वर्षा की ग़ज़लों में एक ओर जहां करुणा-प्रेम है तो वहीं दूसरी ओर सामाजिक विसंगतियों को भी उजागर किया गया है।

डाॅ. वर्षा सिंह अनवरत लिख रही हैं और वे जो भी लिख रही हैं वह अनुभूत सत्य का उद्घाटन है। अपनी लेखनी की पैनी धार से पाठकों तक पहुंचने का डाॅ. वर्षा सिंह का यह सत्कर्म उन्हें साहित्य जगत में अपने लेखन की सार्थकता सिद्ध कर शिखर तक पहुंचाने से नहीं रोक सकता। मेरा मानना है कि ग़ज़ल संवेदना है, करुणा है और प्रेम के धरातल को स्पर्श करती हुई सामाजिक विडंबना तथा मानव मात्र की पीड़ा को उजागर करने का दुस्साहस है, जो डाॅ. वर्षा सिंह की ग़ज़लों में स्पष्ट देखा जा सकता है।

‘ग़ज़ल जब बात करती है’ अर्थात संवाद करती है तो निश्चित रूप से उठाए गए मसलों को रास्ता मिलता है, सोचने-समझने की दिशा मिलती है। डाॅ. वर्षा यंह की यह ग़ज़ल इसी बात का संदेश देती है कि -
ग़ज़ल जब बात करती है, दिलों के द्वार खुलते हैं।
ग़मों की स्याह  रातों में  खुशी के  दीप जलते हैं।
सुलझते हैं  कई  मसले,  मधुर  संवाद  करने से
भुलाकर दुश्मनी  मिलने के  फिर पैगाम मिलते है।


संग्रह में समूची ग़ज़लों के बारे में यह कहना मुश्किल है कि कौन-सी ग़ज़ल सबसे अच्छी है, यह तय कर पाना कठिन है। सभी ग़ज़लों की श्रेष्ठता स्वयं सिद्ध हो रही है। डाॅ. वर्षा की रचनाशीलता इसी प्रकार निरंतर बनी रहे। जिस तरह नदी अपने उद्गम को पीछे मुड़कर कभी नहीं देखती, इसी तरह वह डाॅ. वर्षा सिंह भी साहित्य की धारा को प्रवाहमान बनाए हुए हैं। उनका यह छठवां ग़ज़ल संग्रह ‘ग़ज़ल जब बात करती है’ एक ऐसे विशिष्ट ग़ज़लों का गुलदस्ता है जो प्रत्येक पाठक वर्ग को लुभाने में सक्षम है। उनसे संवाद करने में सक्षम है। डाॅ. वर्षा सिंह की ग़ज़लों की यह विशेषता है कि वह किसी भाषा विशेष पर केंद्रित होकर नहीं रह जाती हैं। विश्वास करती हैं भावनाओं को, संवेदनाओं को अभिव्यक्ति देने में इसीलिए उनकी ग़ज़लों में हिंदी, उर्दू, स्थानीय बोली के शब्द तथा अंग्रेजी के शब्द भी सहज रूप से मिलते हैं। इन शब्दों से ग़ज़लों का प्रभाव और बढ़ जाता है और प्रत्येक पाठक को यह ग़ज़लें अपने हृदय से निकली हुई प्रतीत होती हैं। उदाहरण देखें-
पैकेजों का  जाल,  ज़िन्दगी उलझी है।
मत पूछो क्या हाल, ज़िन्दगी उलझी है।
आज यहां हैं,कल हम होंगे और कहीं
बदल रहे हैं साल, ज़िन्दगी उलझी है।
छीन लिया सुख-चैन कैरियर ने सारा
क़दम मिलाते ताल, ज़िन्दगी उलझी है।


 डाॅ. वर्षा सिंह का यह ताजा ग़ज़ल संग्रह पाठकों के बीच तेजी से लोकप्रियता हासिल करता जा रहा है। उनकी आकांक्षा उनके शेरों में बड़ी खूबसूरती से प्रकट होती है-
काश, मंज़र  आज  जैसा  उम्र भर  क़ायम रहे।
तुम पढ़ो, जो मैं लिखूं, यह सिलसिला हरदम रहे।
छल-कपट से हो न नाता, स्वार्थ की बातें न हों
धड़कनों में प्यार की,  बजती  सदा सरगम रहे।

डाॅ. वर्षा सिंह अपनी ग़ज़लों के माध्यम से नए मुहावरे गढ़ती हैं। उनकी ग़ज़लों में बिंबो का नयापन है, जो हिंदी ग़ज़ल को और समृद्ध करता है। यूं भी हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में डाॅ. वर्षा सिंह का नाम एक जाना पहचाना नाम है और उनकी ग़ज़लें विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोध संदर्भ में शामिल हो चुकी है उनका यह नया ग़ज़ल संग्रह ‘‘ग़ज़ल जब बात करती है’’ ग़ज़ल प्रेमियों को तो पसंद आएगा ही, साथ ही शोधार्थियों के लिए भी अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा।
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पता-
डॉ महेश तिवारी
98,  रविशंकर वार्ड,
सागर (म प्र)
मोबाईल - 9302910446



ग़ज़ल जब बात करती है | ग़ज़ल संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह | समीक्षा | नवभारत

ग़ज़ल जब बात करती है, ग़ज़ल संग्रह
प्रिय ब्लॉग पाठकों, मेरे ग़ज़ल संग्रह "ग़ज़ल जब बात करती है" की समीक्षा "नवभारत" समाचारपत्र के रविवारीय संस्करण दिनांक 21.06.2020 में प्रकाशित हुई है। "नवभारत" समाचारपत्र का यह पृष्ठ नवभारत के सभी संस्करणों में उपलब्ध है। अतः मेरे लिए यह अत्यंत प्रसन्नता का विषय है कि मेरे ग़ज़ल संग्रह की समीक्षा नवभारत के समस्त संस्करणों में प्रकाशित हुई है।
हार्दिक आभार नवभारत🙏


ग़ज़ल जब बात करती है | ग़ज़ल संग्रह | डॉ. वर्षा सिंह | समीक्षा | देशबन्धु

Dr. Varsha Singh
प्रिय मित्रों, देशबन्धु समाचारपत्र में मेरे ग़ज़ल संग्रह "ग़ज़ल जब बात करती है"  की समीक्षा का प्रकाशित होना मेरे लिए सर्वाधिक प्रसन्नता का विषय है। क्योंकि इस बाज़ारवाद के युग में एक देशबन्धु ही ऐसा अख़बार है, जिसनें साहित्यिक मूल्यों को परंपरागत तरीके से सहेज रखा है।
🙏 हार्दिक धन्यवाद देशबंधु 💐
🙏 हार्दिक धन्यवाद समीक्षक डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया जी 💐

गुरुवार, जुलाई 02, 2020

शान तिरंगा है | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh
     प्रिय ब्लॉग पाठकों, हर उस पड़ोसी देश को जो भारत की ओर गलत नज़रिए से आंखें उठा कर देखता है, उसे समझना होगा कि भारतीयों के लिए उनका देश सिर्फ एक देश नहीं है बल्कि मान सम्मान और आन है और हमारा भारतीय ध्वज तिरंगा हमारी शान है।
जी हां... तो कृपया पढ़िए मेरी यह रचना......

शान तिरंगा है, अपनी आन तिरंगा है ।
सारी दुनिया से कह दो सम्मान तिरंगा है।

वीरों ने कुर्बानी दे कर इसे सजाया  है,
देशभक्ति गौरवगाथा का गान तिरंगा है।

हम भारत के वासी, हमको निर्भय रहना है,
हर इक भारतवासी का अभिमान तिरंगा है।

लोकतंत्र विश्वास हमारा, सांस भारती हैै,
अमृत है गणतंत्र और वरदान तिरंगा है।

संविधान के प्रति निष्ठा पहचान हमारी है
रहे सदा आज़ाद देश,  ईमान तिरंगा है।

जाति-धर्म, भाषाएं, बोली ढेरों हैं लेकिन
सबके दिल की एक कथा, उन्वान तिरंगा है

"वर्षा" हमने जन्मभूमि को मां का मान दिया,
रहे सदा सबसे ऊंचा, अरमान तिरंगा है।
           -डॉ. वर्षा सिंह
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