मंगलवार, अगस्त 27, 2013

चली हूं मैं अकेली.....


किसी का नाम....


तेरा नाम


शरारत भी ज्ञरूरी है......


शनिवार, मार्च 23, 2013

गहन संवेदनाओं की ग़ज़लें






‘नई ग़ज़ल’ के जनवरी-मार्च 2013 अंक में प्रकाशित मेरे ग़ज़ल संग्रह ‘दिल बंजारा’ की समीक्षा ......









गहन संवेदनाओं की ग़ज़लें
- गुलाबचंद

डॉ. वर्षा सिंह की ग़ज़लों में एक विशिष्ट शब्द-सौंदर्य तथा लय का माधुर्य मिलता है जिसमें पाठक से सीधा संवाद करने की अद्भुत क्षमता निहित रहती है। प्रत्येक ग़ज़ल का प्रत्येक शेर पाठक  को अपने साथ इस तरह आत्मसात कर लेता है गोया उस शेर में उसकी अपनी जि़न्दगी व्यक्त की गई हो। उनके इस नूतन संग्रह ‘दिल बंजारा’ में संग्रहीत ग़ज़लों का काव्य सौंदर्य तथा कथ्य और शिल्प का अद्भुत तालमेल पाठक वर्ग को अपने दिल की अभिव्यक्ति लगने का आभास देगा।

हिन्दी ग़ज़ल अपने जिस तेवर के लिए जानी-पहचानी जाती है उसका निखरा हुआ रूप डॉ. वर्षा की ग़ज़लों में देखा जा सकता है। डॉ. वर्षा की ग़ज़लगोई की यही खूबी है कि वे जब माधुर्य भरे प्रेम की बात कहती हैं तो भावनाओं की कोमलता के झरने फूट पड़ते हैं। यथा -
कोई छू ले पिघलती हुई चांदनी।
मेरा आंचल सुलगती हुई चांदनी।
चांद आया हज़ारों  सितारे लिए
दे गया इक महकती हुई चांदनी।
उसके हाथों से मौसम गिरा है वहंा
देखिए, वो फिसलती हुई चांदनी।

कवयित्री ने दैनिक जीवन की समस्याओं के विविध आयामों को बड़ी सहजता से अपनी ग़ज़लों में पिरोया है। इन ग़ज़लों की दृश्यात्मकता अंतरंग तथा बहिरंग दृश्यों से एक साथ साक्षात्कार कराती है। भावबोध की दृष्टि से ये ग़ज़लें चाक्षुष प्रभाव लिए हुए हैं। इन ग़ज़लों में चिन्ता है, आशा है, दुख-सुख है और इन सब को मिला कर जीवन की मीमांसा है। स्त्री और पुरुष के अनुपात में तेजी से आता अन्तर और उससे उत्पन्न होने वाला संभावित संकट वर्षा सिंह की ग़ज़ल में अत्यंत मुखर हो कर सामने आता है -
अमृत  वहां  ज़हर है,  जहां औरतें नहीं।
वो घर न कोई घर है, जहां औरतें नहीं।

आंसू, हंसी, खुशी की  वहां  दौलतें नहीं
बेहद  उदास  दर है,  जहां औरतें नहीं।

वर्तमान में सामाजिक संरचना अपने जिस जटिल दौर से गुज़र रही है उसमें पारिवारिक विखण्डन, बिखराव और परस्पर पारिवारिक संबंधों की संवेदनशीलता में तेजी से कमी आती जा रही है।
चंद सिक्कों के बदले बिकी बेटियां।
चीज़ सौदे की अकसर बनी बेटियां।
भाइयों  के  न  पैरों में  कांटें चुभे

बीनती  सारे  कांटे  चली बेटियां।
बंधनों  की  भुलैया  में  ऐसी गुमी
कह न पाई हक़ीकत कभी बेटियां।

वर्षा सिंह की ग़ज़लों में रूमानियत के साथ ही पर्यावरण पर गहराते संकट के प्रति भी गहरी चिन्ता  दिखाई देती है-
कट रहे जंगल  हरीले,  और हम ख़ामोश हैं।
हो  रहे हैं  होंठ नीले,  और हम ख़ामोश हैं।
शेष यदि जंगल न होंगे सूख जाएगी नदी
चींखते ये शब्द सीले, और हम ख़ामोश हैं।

शब्दों के चयन के मामले में वर्षा सिंह बहुत सतर्क हैं। वे एक-एक शब्द इस तरह चुन-चुन कर रखती हैं कि उनकी ग़ज़लों में उन शब्दों से इतर किसी और शब्द के होने की गुंजाइश दिखाई नहीं देती है। हर पंक्ति सरल शब्दों में उभर कर सामने आती है और जीवन की बारीकियों से जोड़ती चली जाती है। शब्दों को इस तरह साधा जाना ग़ज़लों को रोचक बनता ही है, साथ ही उसकी संप्रेषणीयता को भी बढ़ा देता है। यही कारण है कि वर्षा सिंह की ग़ज़लें समकालीन ग़ज़लकारों की ग़ज़लों के बीच अपनी अलग पहचान बनाती दिखाई देती हैं। संग्रह में बड़े बहर और छोटे बहर दोनों प्रकार की ग़ज़लें हैं। छोटे बहर की ग़ज़लों में भी वही पैनापन है जो बड़े बहर की ग़ज़लों में है- हर क़तरा गुमराह हुआ है।
मौसम  लापरवाह हुआ है।
जाने कैसी  हवा चली ये
पत्ता-पत्ता स्याह  हुआ है।

इस ग़ज़ल संग्रह में अंतर्सम्वेदनाजनित राग-विराग से जुड़ी ग़ज़लें हैं। इनमें दुख भी है, सुख भी। मोह है, पीड़ा भी। कल्पना है तो यथार्थ भी और यह विश्वास दिलाती है कि ये ग़ज़लें गहन अनुभवों से रच-बस कर सामने आई हैं। इस दृष्टि से वर्षा सिंह का यह ताज़ा ग़ज़ल संग्रह ‘दिल बंजारा’ हर मनोदशा के पाठक की पसन्द में खरा उतरने योग्य है।   
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पुस्तक   - दिल बंजारा
कवयित्री -  डॉ. वर्षा सिंह
प्रकाशक - नवभारत प्रकाशन, डी-626,गली नं.1, अशोकनगर,(निकट ललितामंदिर),शाहदरा,
          दिल्ली -110093
मूल्य     - 195/-
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समीक्षा की प्रकाशिवि.....