Dr. Varsha Singh |
web magazine युवा प्रवर्तक के अंक दिनांक 26 अप्रैल 2019 में प्रकाशित मेरी ग़ज़ल .....
आग उगलता सूरज
- डॉ. वर्षा सिंह
कितने दिन हो गये, न बदली दिनचर्या ।
घर, दफ्तर के बीच बंधी सीमित दुनिया ।
कंकरीट के जंगल में हम क़ैद हुए ,
कभी-कभी भूले से दिख जाती चिड़िया ।
दूर कहीं ले जाती जो देशाटन को,
हाथ कभी लग जाती जादू की पुड़िया ।
जी में आता है अक्सर हम भाग चलें ,
जहां कहीं बहती सुकून की हो नदिया ।
आग उगलता सूरज, धरती सूख रही,
काश, कभी खुल जाती "वर्षा" की डिबिया।
युवा प्रवर्तक के प्रति हार्दिक आभार 🙏
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ग़ज़ल - डॉ. वर्षा सिंह # ग़ज़लयात्रा |