प्रिय मित्रों,
भीषण गर्मी के इस दौर में मेरी एक बुंदेली रचना प्रस्तुत है..... Please read & Share
भुट्टा घाईं भुन रए
काट-काट जंगलन खों,
बस्तियां बसाय दईं
मूंड़ धरे घुटनों पे
सबई अब रोए हैं।
‘पर्यावरण’ की मनो
ऐसी- तैसी कर डारी
बेई फल मिलहें जाके
बीजा हमने बोए हैं।
गरमी के मारे सबई
भुट्टा घाईं भुन रए
‘वर्षा’ खों टेर- टेर
बदरा खों रोय हैं।
कछू तो सरम करो
ऐसो- कैसो स्वारथ है
दूध की मटकिया में
मट्ठा जा बिलोए हैं।
- डॉ वर्षा सिंह
#बुंदेलीबोली_वर्षासिंह
#ग़ज़लवर्षा
भीषण गर्मी के इस दौर में मेरी एक बुंदेली रचना प्रस्तुत है..... Please read & Share
भुट्टा घाईं भुन रए
काट-काट जंगलन खों,
बस्तियां बसाय दईं
मूंड़ धरे घुटनों पे
सबई अब रोए हैं।
‘पर्यावरण’ की मनो
ऐसी- तैसी कर डारी
बेई फल मिलहें जाके
बीजा हमने बोए हैं।
गरमी के मारे सबई
भुट्टा घाईं भुन रए
‘वर्षा’ खों टेर- टेर
बदरा खों रोय हैं।
कछू तो सरम करो
ऐसो- कैसो स्वारथ है
दूध की मटकिया में
मट्ठा जा बिलोए हैं।
- डॉ वर्षा सिंह
#बुंदेलीबोली_वर्षासिंह
#ग़ज़लवर्षा
सही कहा
जवाब देंहटाएंप्रांतीय भाषा की सुंदर संदेश देती कविता।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कुसुम जी
हटाएंशुक्रिया
जवाब देंहटाएं