Dr. Varsha Singh |
प्रिय ब्लॉग पाठकों, मेरी यह ग़ज़ल मेरे संग्रह "हम जहां पर हैं" में संग्रहीत है। यह पुरानी ग़ज़ल मुझे लगता है कि आज के हालात में भी आपको ताज़ा-सी महसूस होगी। निवेदन है कि कृपया पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। धन्यवाद !
ग़ज़ल
प्यार की भाषा
-डॉ. वर्षा सिंह
वह समझ पाते नहीं घर - बार की भाषा।
सीख जो पाते नहीं हैं प्यार की भाषा।
शर्तिया मंझधार में वह नाव डूबेगी,
हो गई विपरीत गर पतवार की भाषा
जी-हज़ूरी, वाहवाही की सदा चाहत,
इसलिए चुभती उन्हें अख़बार की भाषा
और कुछ इतिहास द्वापर का लिखा जाता,
गर भुला देते सभी प्रतिकार की भाषा।
दोस्ती जिसने क़लम के साथ कर ली हो,
रास कब आई उसे तलवार की भाषा ।
गांव में दाख़िल हुई जिस दिन हवा शहरी,
लोग भूले झांझरी झंकार की भाषा ।
बाद मरने के वही अर्थी, वही मरघट ,
काम तब आती नहीं अधिकार की भाषा।
ज़िंदगी की दौड़ में वह रह गया पीछे,
पढ़ न पाया जो यहां रफ्तार की भाषा।
नफ़रतों का तब नहीं होता निशां 'वर्षा',
काश, होती एक गर संसार की भाषा।
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बेहतरीन ग़जल।
जवाब देंहटाएंआदरणीया वर्षा जी!
बस इतना ही कहना है कि
आप तो मलिकाए ग़ज़ल हो।
आदरणीय, आपके इस औदार्य के लिए हार्दिक आभार....
हटाएंमैं तो मात्र एक अदना सी शायरा, कवयित्री हूं।
पुनः आभार एवं नमन 🙏
हार्दिक आभार, अनीता सैनी जी !
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद महोदय (हिन्दी गुरु)
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