शुक्रवार, सितंबर 11, 2020

हिन्दी काव्य परम्परा और ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह

साहित्य को मनोवेगों की सृष्टि माना जाता है क्योंकि साहित्य भाषा के माध्यम से अंतःजनित अनुभूतियों को कलात्मक अनुभूति देता है। पद्य को गद्य का प्रतिपक्षी माना गया है। गद्य और पद्य में छंद, लय और प्रवाह का अंतर होता हैं। छायावादी युग में पद्य में चिंतन की अपेक्षा भावों की प्रधानता हुआ करती थी किन्तु आधुनिक काल में भाव और चिंतन समान रूप से काव्य में उपस्थित रहते हैं। कई बार चिंतन भावों से भी अधिक प्रतिशत में विद्यमान रहता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि आधुनिक युग के कवि का परिवेश के कटु यथार्थ से सरोकार बढ़ गया है। यदि बात की जाए हिन्दी में अपना विशेष स्थान बनाने वाली ग़ज़ल विधा का तो इसने अपने मूल अस्तित्व की भले ही एक लम्बी यात्रा की है किन्तु हिन्दी में ग़ज़ल की पहचान भावना से अधिक विचार प्रधान रही है।
हिन्दी में काव्य परम्परा संस्कृत की देन है। ग़ज़ल, हाइकू, साॅनेट जैसी विधाओं के पूर्व जो काव्य हिन्दी में रचा जा रहा था, उससे संस्कृत से विकसित काव्यशास्त्र के अनुरूप होने की अपेक्षा की जाती रही है। भारतीय काव्य शास्त्रियों ने काव्य को कवि का कर्म मानते हुए काव्य की परिभाषाएं दी हैं, जैसे - ‘‘कवि शब्दस्य कवृ वर्णे इत्यस्य धातोः। काव्य कर्मणों रूपम् ।’’ अर्थात् कवि शब्द की व्युत्पत्ति ‘‘कवृ’’ धातु से हुई है तथा कवि का कर्म ही काव्य है। आचार्य विद्याधर के अनुसार - ‘‘ कवयतीति इति कविः तस्य कर्मः काव्यम्।’’ अर्थात् कवि का कर्म ही काव्य है। प्राचीन काव्यशास्त्रियों द्वारा दी गई काव्य की परिभाषा आधुनिक युग में क्रमशः परिवेश के अनुकूल बदलती गई। महावीर द्विवेदी ने कहा कि ‘‘कविता वह प्रभावशाली रचना है, जो पाठक या श्रोता के मन में आनंदमयी प्रभाव डालती है।’’ काव्य के संबंध में द्विवेदी जी का यह भी विचार था कि ‘‘अंतःकरण्ी वृत्तियों के चित्र का नाम कविता है।’’ वहीं सुमित्रानंदन पंत कविता को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ‘‘ कविता हमारे परिपूर्ण क्षणों की वाणी है।’’
उत्तर आधुनिक काल आते-आते हिन्दी कविता में यथार्थ का प्रतिशत जिस प्रकार बढ़ता गया उसी प्रकार काव्य की परिभाषा भावप्रधान से चिन्तनप्रधान होती गई। धूमिल खरे-खरे शब्दों में कविता को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि - ‘‘ कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है।’’ अपनी इस परिभाषा को कविता में ढालते हुए धूमिल ने लिखा है - ‘‘ कविता/शब्दों की अदालत में /अपराधियों के कटघरे में /एक निर्दोष आदमी का हलफ़नामा है।’’ देखा जाए तो हिन्दी में ग़ज़ल का सफ़र कुछ इसी तरह शुरू होता है। भारतेंदु युग से हिन्दी में ग़ज़ल का जो सृजन आरम्भ हुआ वह दुष्यंत कुमार तक पहुंच कर सांसारिक यथार्थवाद में प्रवेश कर गया। लेकिन काव्य कितना भी यथार्थवादी क्यों न हो जाए उसकी ज़मीन तो भावनाओं की रहती है इसलिए हिन्दी ग़ज़ल में खुरदुरे यथार्थ के साथ रूमानियत भी शब्दों ढलती आ रही हैं।
शायरी में मिलन (वस्ल) और विछोह (जुदाई) का वर्णन हरेक शायर अपनी-अपनी तरह से करता है। मिलन और विछोह के बीच उलाहने का दौेर भी चलता है। यह उलाहना कभी मिलता है तो कभी दिया जाता है। उलाहना देने का भी अपना शऊर होता है, जिसे शायरी की दुनिया में बख़ूबी निभाया जाता है।
प्रेम एक ऐसी भावना है जो सुख और दुख दोनों से सरोकार रखती है। व्यक्ति जब प्रेम की सफलता से प्रसन्न रहता है तब उसे दुनिया खुशियों भरी दिखाई देती है। उस स्थिति में उसे फूल, पत्ते, चांद, तारे यहां तक कि तोता, मैना भी प्रेम के गीत गाते सुनाई देते हैं। वहीं प्रेम में असफलता मिलने पर दुनिया के सारे दृश्य दुखदाई लगने लगते हैं। एकांत अर्थात् तनहाई भाने लगती है। उस तनहाई में भी यही इच्छा कुरेदती रहती है कि बिछुड़ा हुआ प्रिय किसी भी स्थिति में आ कर मिला करे, भले ही यह मिलन दुख को और बढ़ा क्यों न दे। यह एक बहुत ही भावुक सम्वेग है। जहां एक पल यह तमन्ना जागती है कि उसका प्रिय किसी न किसी बहाने उससे आ कर मिले, भले दोनों में अलगाव हो चुका हो, वहीं दूसरे पल वह खुद बोल उठता है कि अब मिलने की ज़रूरत नहीं है। प्रेम में अलगाव की स्थिति एक विचित्र मनोदशा जगा देती है जिसमें एक पल देखने की ललक जागती है तो दूसरे पल कभी न देखने की हठधर्मिता जागने लगती है और इसी के साथ दूसरों के दुख-दर्द भी दिखाई देने लगते हैं।

कविता और गीत की तुलना में ग़ज़ल शिल्प के स्तर पर एक विशिष्ट और अलग विधा है। एक ही ग़ज़ल विचारों और अभिव्यक्तियों के कई सारे पुष्पों के गुलदस्ते की तरह होती है। अपने तमाम शेरों में शायर प्रेम की कोमल भावना को ले कर कुछ ख़ास कहने की कोशिश करता है। यह कोशिश किसी सन्देश, किसी प्रतिबद्धता,किसी प्रतिकार,किसी प्रतिरोध या जिजीविषा के रूप में सामने आती है। हर ग़ज़ल का एक- एक शेर प्यार को परिभाषित करते हुए उसके विपरीत पक्ष को भी उकेरता चलता है। समकालीन ग़ज़लों में यदि व्यंग्य है, उलाहना है, तक़रार है, नसीहत है तो समाज की वास्तविकता भी है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर लिखा। सफल प्रेमी को प्रकृति में बिखरे जो बिम्ब गुदगुदाते और हँसाते हैं, असफल आशिक को वहीं कुदरत काटती है।

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  2. हिंदी भाषी क्षेत्र को भी हिंदी दिवस मनाना पड़ता है। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी ,जो हमारे साँसों की धौंकनी है ,हमारा सहज रुदन और आवेश है उसे एक दिवस पखवाड़े की सीमा में आबद्ध करने की नाकाम कोशिश करते हैं हम लोग। बहुत ही सुखद पोस्ट :एक जगह इतना भंडार  मिला है हिंदी को ,बिन बादल  वर्षा का प्यारा मिला है हिंदी को ।  
    kabirakhadabazarmein.blogspot.com 

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