Dr. Varsha Singh |
सोचते थे हम सुरक्षित जिन सरोकारों के दर
छत दीवारों से अटी थी दीमकें थीं भीत पर
फ़ैसले में जब मिला संवेदनाओं को जहर
चुप रहे सब पेन की टूटी हुई निब देख कर
और लोगों की तरह वह हंस नहीं पाती कभी
एक लड़की टूटती, जुड़ती, सिसकती रात भर
न्यूनतम दर पर बिकी है आदमी की ज़िन्दगी सुर्खियों में छप न पाई इस दलाली की ख़बर
औरतें धो कर थकी बच्चों के गंदे पोतड़े
चौक पर चर्चा प्रगति की, कर रहा सारा शहर
फूट कर रिसती हताशा, मन दवाएं ढूंढता
तय बमुश्किल हो रहा है शोकगीतों का सफ़र
तोड़कर दर्पण न खुद से भाग पायेंगें कभी
था हमें मालूम “वर्षा”, भूल बैठे थे मगर
- डॉ. वर्षा सिंह
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 14 नवम्बर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंयशोदा जी, आपके इस अनुग्रह के लिए हार्दिक आभार 🍁🙏🍁
हटाएंवाहहह बेहद लाज़वाब. गज़ल वर्षा जी...हर शेर बहुत जानदार और अर्थ पूर्ण हैं।
जवाब देंहटाएंन्यूनतम दर पर बिकी है आदमी की ज़िन्दगी सुर्खियों में छप न पाई इस दलाली की ख़बर
औरतें धो कर थकी बच्चों के गंदे पोतड़े
चौक पर चर्चा प्रगति की, कर रहा सारा शहर
बेहद उम्दा👌👌
श्वेता सिन्हा जी,
हटाएंआपने मेरी ग़ज़ल की सराहना की इस हेतु अत्यंत हार्दिक आभार आपका 🙏
बेहद उम्दा👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद ❤
हटाएंहर शेर कमाल है ... बहुत ही संवेदनशील शेर ...
जवाब देंहटाएंनए बिम्ब ... सच्ची बातें ... वाह वाह निकलती है, दाद निकलती है हर शेर पर ...
आप सरीखे ग़ज़ल के सिद्धहस्त हस्ताक्षर द्वारा प्रशंसा पाना मायने रखता है....
हटाएंबहुत बहुत आभार 🙏🍁🙏
अप्रतिम अद्भुत चिंतनशील!
जवाब देंहटाएंहर शेर मन पर छाप छोडता हर शेर लाजवाब ।
हार्दिक आभार कुसुम जी
हटाएंलाजवाब गजल...दमदार शेरों से सजी...
जवाब देंहटाएंवाह!!!
फूट कर रिसती हताशा, मन दवाएं ढूंढता
तय बमुश्किल हो रहा है शोकगीतों का सफ़र
औरतें धो कर थकी बच्चों के गंदे पोतड़े
जवाब देंहटाएंचौक पर चर्चा प्रगति की, कर रहा सारा शहर!!!!!!!
आह के साथ वाह भी आदरणीय वर्षा जी | ये नये प्रतीक और बिम्ब रचना को प्रभावी और सराहनीय बनाते हैं |