सोमवार, नवंबर 19, 2018

ग़ज़ल .... लड़ रहा अपनी हदों से आदमी - डॉ. वर्षा सिंह

Dr. Varsha Singh

लड़ रहा अपनी हदों से हो गया है अधमरा
आदमी अंधी गली में ढूंढता है आसरा


आजकल खामोश ‘मोचीराम’ ‘धूमिल’ का हुआ
बोलता था तांत की तनकार में हरदम खरा


इक अजब सी तिक्तता घुलने लगी है स्वाद में
जीभ तालू से चिपकती होंठ जाते थरथरा


‘सहजपुर’ देहात से ‘सागर’ शहर ना आ सका
‘रामधन’ के सामने है भार कर्ज़े का धरा


एक ढिबरी रोशनी ही ग्लोब है जिसके लिए
वह सियासत का समझ पाता नहीं है माज़रा


तोड़कर नाता बिवाई से ग़ज़ल का इन दिनों
लिख रही है ज़िन्दगी दीवान भटकावों भरा


‘बेतवा’ में बाढ़ लेकिन ‘ओरछा’ सूखा पड़ा
विवश ‘वर्षा’,क्या करें मौसम बदलता पैंतरा



19 टिप्‍पणियां:

  1. ध्रुव सिंह जी, बहुत बहुत आभार 🙏

    बहुत अच्छे उद्देश्य को ले कर कार्य कर रहे हैं आप ।
    साधुवाद एवं शुभकामनाएं 🍁🌹🍁

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन असरदार ग़ज़ल जिसने समेटे हैं ज़िन्दगी के कई रंग बड़ी ख़ूबसूरती से। कृपया मेरा भ्रम दूर करें,आपकी ग़ज़ल के तीसरे शेर के दूसरे मिसरे का पहला शब्द "जीव" शेर के अर्थ को समझने में अड़चन पैदा कर रहा है। सामान्यतः मुझे लगा कि आपने "जीभ" या "ज़ुबाँ" के स्थान "जीव" शब्द प्रकाशित किया है।
    बधाई एवं शुभकामनाएँ। लिखते रहिये।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रविन्द्र यादव जी, ध्यान दिलाने हेतु शुक्रिया ।
      वास्तव में जीभ शब्द ही है। ब्लॉग पर लिखने में त्रुटि हो गई थी। मैंने सुधार कर दिया है। पुनः धन्यवाद।

      हटाएं
  3. बहुत सुन्दर वर्षा जी. कहीं धूप, कहीं छाँव, कहीं सूखा, कहीं बाढ़ ! बेतवा या नर्मदा की धरती का ही दर्द नहीं, यह भारत की हर नदी का, हर क्षेत्र दर्द है. असंतुलन, असमानता ही आज के समाज की कड़वी सच्चाई है. हम मौसम के मारे कम और राजनीति के मारे अधिक हैं.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ख़ूब ...
    कमाल के शेर हैं सभी ... इस भेद भाव को बख़ूबी लिखा है अपने शेरों में आपने ... दिली दाद क़बूल करें ....

    जवाब देंहटाएं
  5. सम सामायिक गतिरोधों पर उम्दा अस्आर।
    हर शेर लाजवाब, बेहतरीन।

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह!!!
    बहुत ही लाजवाब गजल....

    जवाब देंहटाएं
  7. अत्यंत आभार पम्मी जी 🙏

    जवाब देंहटाएं