Dr. Varsha Singh |
लड़ रहा अपनी हदों से हो गया है अधमरा
आदमी अंधी गली में ढूंढता है आसरा
आजकल खामोश ‘मोचीराम’ ‘धूमिल’ का हुआ
बोलता था तांत की तनकार में हरदम खरा
इक अजब सी तिक्तता घुलने लगी है स्वाद में
जीभ तालू से चिपकती होंठ जाते थरथरा
‘सहजपुर’ देहात से ‘सागर’ शहर ना आ सका
‘रामधन’ के सामने है भार कर्ज़े का धरा
एक ढिबरी रोशनी ही ग्लोब है जिसके लिए
वह सियासत का समझ पाता नहीं है माज़रा
तोड़कर नाता बिवाई से ग़ज़ल का इन दिनों
लिख रही है ज़िन्दगी दीवान भटकावों भरा
‘बेतवा’ में बाढ़ लेकिन ‘ओरछा’ सूखा पड़ा
ध्रुव सिंह जी, बहुत बहुत आभार 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे उद्देश्य को ले कर कार्य कर रहे हैं आप ।
साधुवाद एवं शुभकामनाएं 🍁🌹🍁
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार, सुशील जी
हटाएंबेहतरीन असरदार ग़ज़ल जिसने समेटे हैं ज़िन्दगी के कई रंग बड़ी ख़ूबसूरती से। कृपया मेरा भ्रम दूर करें,आपकी ग़ज़ल के तीसरे शेर के दूसरे मिसरे का पहला शब्द "जीव" शेर के अर्थ को समझने में अड़चन पैदा कर रहा है। सामान्यतः मुझे लगा कि आपने "जीभ" या "ज़ुबाँ" के स्थान "जीव" शब्द प्रकाशित किया है।
जवाब देंहटाएंबधाई एवं शुभकामनाएँ। लिखते रहिये।
रविन्द्र यादव जी, ध्यान दिलाने हेतु शुक्रिया ।
हटाएंवास्तव में जीभ शब्द ही है। ब्लॉग पर लिखने में त्रुटि हो गई थी। मैंने सुधार कर दिया है। पुनः धन्यवाद।
बहुत सुन्दर वर्षा जी. कहीं धूप, कहीं छाँव, कहीं सूखा, कहीं बाढ़ ! बेतवा या नर्मदा की धरती का ही दर्द नहीं, यह भारत की हर नदी का, हर क्षेत्र दर्द है. असंतुलन, असमानता ही आज के समाज की कड़वी सच्चाई है. हम मौसम के मारे कम और राजनीति के मारे अधिक हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार गोपेश जी 🙏
हटाएंबहुत ख़ूब ...
जवाब देंहटाएंकमाल के शेर हैं सभी ... इस भेद भाव को बख़ूबी लिखा है अपने शेरों में आपने ... दिली दाद क़बूल करें ....
शुक्रिया तहे दिल से नासवा जी 🙏
हटाएंवाह! बहुत खूब और सार्थक!
जवाब देंहटाएंआभार आपका, विश्वमोहन जी
हटाएंवाह !!बहुत खूब 👌
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद
हटाएंसम सामायिक गतिरोधों पर उम्दा अस्आर।
जवाब देंहटाएंहर शेर लाजवाब, बेहतरीन।
बहुत बहुत धन्यवाद कुसुम जी
हटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब गजल....
अत्यंत आभार पम्मी जी 🙏
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
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